अहा, क्या है देहाती जीवन ?
और चंपा उद्यान का वर्णन मिलता है।
सभी की इच्छा होती है कि वह शक्तिशाली व्यक्ति बने और संसार में उसकी धाक हो। मगर शक्ति प्राप्त करना कोई आसान खेल नहीं है। शक्ति हासिल करने का खेल सृष्टि के आरंभ में ही शुरू हो गया था। जो आज भी चल रहा है। हम इतिहास का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि आज भी शक्तिशाली व्यक्तियों के दरबार लगते है। ये दरबार ही शक्ति का केंद्र है। दरबारों में शक्ति प्राप्त करने का खेल भी पुराना है। जो राजा, महाराजा, महारानी, सम्राट और सामंतों के दरबार होता था। इसकी बुनियाद छल कपट और धोखे पर टिकी होती थी। अगर आप शक्तिशाली व्यक्ति बनना पसंद करते हैं तो इसके सिद्धांत का ज्ञान आपको होना चाहिए। हम आपको ऐसी ही यात्रा का भागीदार बनाने जा रहे हैं
भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा (महानगर) के किनारों को छोड़ते ही गांव देहात का एक महासमंदर शुरू हो गया। ब्रज मंडल की चौरासी कोस परिक्रमा का पहला पड़ाव मधुवन है। विशाल वन की कहानी सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग से जुड़ी है। इस वनभूमि में गजब की शक्ति, आकर्षण, माधुर्य और आध्यात्मिक आत्म शांति है। मधुवन क्षेत्र का ही एक गांव है मुकुंदपुर। मधुवन की दक्षिण पश्चिम दिशा में केतकी वन और चंपा के उद्यान के मध्य विश्व कर्मा ने राधा माधव की क्रीड़ा के लिए रत्नजड़ित मंडप का निर्माण कराया था, जो चार विशाल वेदिकाओं से घिरा था।कालान्तर में इस भूमि के निवासी बहुत शक्तिशाली और भाग्यशाली थे। समय के उतार चढ़ाव में मुकुंदपुर के इतिहास साथ साथ केतकी वन और चंपा के उद्यान धार्मिक ग्रंथों में ज्यादा स्थान नहीं पा सके। आज हम आपको इसी गांव की आध्यात्मिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक यात्रा का यात्री बना रहे हैं।
अहा, क्या है गांव का जीवन ?
गांव में प्रवेश करते ही किनारे पर एक छोटा तालाब था। तालाब था। यकीन दिला रहा था कि अहा ! देहात का भी क्या जीवन है ? जो गंदगी से भरपूर और सीमा तोड़ बदबूदार था। गधे, घोड़े, सूअर, कुत्ते इसको देखकर ही आनंदित हो रहे थे, पर मक्खी, मच्छर, भुनगे का संदेश स्पष्ट था कि उनके लिए बनाई गई परिवार नियोजन की योजना सरकार अब बंद कर दी है। तभी तो उन्हें अपने अपने कुनबा खानदाजीन की सदस्य संख्या बढ़ाने का पूर्ण अवसर मिल सकता है। वरना, उनकी इतनी मजाल की वह यहां पनप भी पाएं। सबक सिखा रहे थे कि ग्रामीण उनकी भांति है रहना और जीना सीख जाएं तो समस्या ही समाप्त हो जाएगी।
जिसे ग्रामीण आज बड़ी समस्या बताते नहीं थक रहे हैं, उन्ही के घरों की महिला तालाब की गंदगी की कमी को पूरा करने का काम भी तल्लीनता और अथक मेहनत से कर रही थीं। वे घर का कचरा लाती है किनारे पटक कर चली जाती थी। पुरुष भी खामोश से तालाब की बार बार बदलती तस्वीर को टकटकी लगा कर देख रहे थे, लग रहा था कि शक्तिहीन हो चला तालाब ग्रामीणों को एक एक कर रोगों के मकड़ जाल में बांध कर उनके जीवन यात्रा को मुश्किल कर रहा था। क्योंकि इंसान और जानवरों का मल मूत्र मिश्रण ही तो तालाब की खुराक थे।
पानी का ऐसा बलात्कार
पनिहारी और पनघट का युग का लगभग खत्म हो गया था। संबरसेबिल के समय में कोई एकाध खैंचू (हैंडपंप) के सहारे ही था, अधिकांश घरों में तो बिजली का बटन दबा कर पाताल से पानी खींचने का सुख महिलाओं के नसीब में था। मगर, नालियों में नदी समान जल प्रवाह देख कर लगता था कि ये तो पानी का बलात्कार करने के लिए ही बनी है।
तालाब का जल स्तर आम रास्ते के लेबल पर ही वर्षों से बना हुआ था। मापक के रूप में कभी हैइपंप के लिए तालाब किनारे बनवाया गया चबूतरा ही था। इसपर सुबह शाम कुछ युवक मन शांत करने के बैठे रहते थे। दूसरा कोई स्थान भी उनके लिए इससे सुंदर था भी नहीं। ये युवक ही चबूतरा पर तालाब से आई बाढ़ की इत्तिला नगर निगम को देने का काम करते। आयुक्त के हुक्म पर ट्रैक्टर लगाकर पानी को इस तालाब से दूसरे तालाब में भर दिया जाता। बरसात के दिनों में मुख्य मार्गो से निकलने में ग्रामीणों को छठी का दूध याद आ जाता था।
भगवान श्री कृष्ण ने मोक्ष के लिए किया था जल कर्मकांड
तालाब का अपना धार्मिक महत्व भी था। ब्रज चौरासी कोस परिक्रमा के प्रमुख तीन वन हैं। मधुवन, तालवन और कमोद वन। कार्तिक एकादशी पर तीनों वनों की परिक्रमा लगाई जाती है। इसी परिक्रमा मार्ग में स्थित इस तालाब को मोक्ष या मुक्ति कुंड कहा जाता था। जो आज अपनी मुक्ति का इंतजार कर रहा है। राजस्थान शिक्षा विभाग से सेवानिवृत मास्टर रामगोपाल, मास्टर भरत सिंह और ग्रामीण किशन सिंह कहते है कि जब भगवान श्री कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम ने ताल वन में निवास करने वाले राक्षस धेनूकासुर का वध किया था। तब वह अपनी ग्वाल बाल टोली के संग इसी मार्ग से लौटे। मोक्ष के लिए इसी तालाब के पानी में स्नान कर जल क्रिया कर्मकाण्ड की रस्म पूरी की थी। तभी से इस कुंड का नाम मुक्तिकुंड पड़ गया था। इसका प्रमाण भी पुराण में होने का दावा ग्रामीण करते हैं।
विलुप्त हुआ पुरखों का खेरा
गांव में महत्वपूर्ण जमीन का एक टुकड़ा होता था, जो टीले के आकार में होता था। वह गाँव की आन बान और शान का प्रतीक होता था। गांव का भी एक खेरा था। जब गांव से कोई बारात निकलती तो गांव का नाम लेकर खेरे का जयकारा बड़े जोश से लगाया जाता था। गांव में कोई सामूहिक महोत्सव होता तो उसमें भी यही नारा बुलंद होती था। खैरे टीले का हुलिया ग्राम सभा के कार्यकाल में यह कहकर बदल दिया गया था कि यहां पर एक बड़ी जलाशय का विकास किया जाएगा और उसमें पाइप लाइन के जरिए गंगा जल का भंडार रहेगा। पर आज इसमें कुंड का जहरीला जल उड़ेला जा रहा है। ताकि कुंड का जल उफान भरके मुख्य रास्ते पर न आ जाए। गोबर कंडा पाथने का कम कुंड के धरातल पर किया जा रहा था।
खेरे ही गांव की संस्कृति सभ्यता का जन्मदाता था। पूर्व में यमुना मधुवन के निकट स्थित ध्रुव टीला, झाड़ी और निर्ध के इर्द गिर्द होकर बहती थी। ध्रुव ने पांच वर्ष की आयु में घोर तप किया था। सूर्यबंश के राजकुमार मधु जो कुसंगति के कारण मधु दैत्य बन गया था। उसने ही मथुरा को बसाया था। उसके पुत्र लवणासुर राक्षस का वध अयोध्या के राजा मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने किया था। राधा रानी ने इसी वन क्षेत्र में कृष्ण संग नृत्य किया था।
उस काल में यहां कलार जाति की बस्ती घने जंगल में बसी हुई थी। कलार जंगल में मदिरा बनाने का काम करते थे। एक बार महामारी फैल गई थी। बस्ती से दुर तालाब किनारे रह रहे लोग ही जीवित रह गए थे, बस्ती के लोग मर गए। जीवित रहे हुए लोगों ने पुनः इस बस्ती को बसाया। इसका प्रणाम गांव में जाट जाति के अलग अलग गोत्र के परिवार है। जो अपने पुरखो का निकास अलग अलग गांवों से बताते हैं। दूसरा साक्ष्य यह भी कि खेरे की खोदाई में मिले मिट्टी के बर्तनों के अवशेष।
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